opinion : दीपावली हो शांति का पर्व

अगर किसी की अच्छी नौकरी लग गयी, वेतन बढ़ा, परिवार में बढ़ोतरी हुई, तो एक बात कही जाती है- इस बार तो उसकी दूसरी दीपावली हो गयी यानी दीपावली का मतलब है खुशी, उजास, उजाला. वैसे भी इसे प्रकाश का पर्व कहा जाता है. यह भी दिलचस्प है कि जिस दिन अमावस्या होती है, आसमान में चंद्रमा का कहीं पता नहीं होता, चारों ओर अंधेरा छाया होता है, ठीक उसी दिन हमारे घर-द्वार रोशनी से जगमगा उठते हैं. जब बिजली नहीं थी, तब मिट्टी के दीये ही इस प्रकाश के लिए जाने जाते थे. आज भी बिजली की चाहे जितनी जगमग हो, हम मिट्टी के दीयों को नहीं भूले हैं.

भूलना चाहिए भी नहीं, क्योंकि जो इन्हें बनाते हैं, इस चारों ओर फैले प्रकाश में उनका भी हिस्सा होना चाहिए. दीपावली के दिन जिन लक्ष्मी का आवाहन हम करेंगे, चाहेंगे कि धन-धान्य से हमारे घर भरे रहें, तो इसमें वे जरूर शामिल होने चाहिए, जिन्हें लक्ष्मी, पैसे या रोजगार की किसी अन्य वर्ग से ज्यादा जरूरत है. आखिर वह समाज दीपावली या प्रकाश का उत्सव कैसे मना सकता है, जहां उसके आसपास किसी घर में चूल्हा भी न जला हो. आज अगर वक्त बदल गया है, तो उसे सबके िलए बदलना चाहिए.

जैसे ही नवरात्रि खत्म होती है, दीपावली की आहट सुनायी पड़ती है. हर रोज के त्योहार. लोगों के साथ मीडिया भी जुट जाता है और किसी एक स्थान के त्योहार को अखिल भारतीय बना देता है, उदाहरण के तौर पर करवा चौथ. एक समय में इसे उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ही मनाया जाता था, लेकिन फिल्मों, धारावाहिकों, ओटीटी, सोशल मीडिया का कुछ ऐसा जलवा है कि बड़ी-बड़ी अभिनेत्रियां करवा चौथ मनाने के फोटोज शेयर करती दिखायी देती हैं. यह देखना भी दिलचस्प है हो सकता है कि एक दिन पहले इन्होंने महिला सशक्तीकरण पर एक लंबा भाषण दिया हो और अगले दिन पति को करवा चौथ के दिन किसी छलनी में देखतीं दिखायी पड़ें.

दीपावली का भी यही हाल है. कई सितारों की तो दीपावली पार्टियां भी मशहूर हैं. दीपावली पार्टियों के चित्र भी अक्सर दिखायी देते हैं. कोई फुलझड़ी जला रहा है, कोई पटाखे चला रहा है. यह भी देखकर आश्चर्य होता है कि जिस दीपावली पर हम धन के आगमन की कामना करते हैं, उसे जुए से भी जोड़ दिया गया है. कहीं कहीं रात-रात भर जुआ खेला जाता है. जुए में अगर कोई एक जीतता है, तो बाकी हारते भी हैं, इस तरह धन आना तो दूर, धन का नुकसान होता है. यही हाल शराब का भी है. बहुत से ऐसे लोग भी जी भर शराब पीते दिखते हैं, जिन्हें स्वास्थ्य कारणों से इसकी मनाही होती है. वे बड़ी लापरवाही से कहते हैं कि भाई, दीपावली के दिन तो अपने मन की कर लेने दो.

एक समय में दीपावली का पांच दिन का उत्सव बहुत शांति से मनाया जाता था. न पटाखों का इतना शोर था, न ही इतना दिखावा, न उपहारों के लेन-देन की इतनी मारामारी. बाजार से लाये जाने वाले पकवानों की भी घर में इतनी आवाजाही नहीं थी. अक्सर पकवान घर में ही बनते थे. उसका शायद एक बड़ा कारण यह था कि रसोई संभालने और उत्सव मनाने की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर थी. आम लोगों की जेब में इतने पैसे भी नहीं थे कि सब कुछ बाजार से खरीद सकें. लेकिन अब नगरों-महानगरों में बड़ी संख्या में महिलाएं नौकरी करती हैं. जब दिन, सप्ताह, महीने वे घर से बाहर बिताती हैं, तो यह तो संभव ही नहीं कि वे सब कुछ घर में बना सकें. इसीलिए घरों में बाजार का दखल बढ़ा है.

घर में बनाने का समय नहीं और ऐसा कुछ चाहिए, जिसकी जरूरत है, तो बाजार हाजिर है. ऑनलाइन खरीदारी और डिलेवरी सिस्टम ने इसे और भी आसान बनाया है. ऐसे में एक तरफ तो दीपावली पर बहुत से घरों में बाजार के इतने मिठाई-पूरी, पकवान जमा हो जाते हैं कि खाये ही नहीं जाते, दूसरी तरफ मिलावट की बातें होती हैं. अक्सर मिलावटी और नकली खोये की खबरें आती हैं. बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि इन दिनों ऐसी खबरें जान-बूझकर चलायी जाती हैं, जिससे भारतीय मिठाइयों की मांग घटे तथा चॉकलेट और ऐसे ही अन्य उत्पादों का बाजार बढ़े.

यही नहीं, दीपावली का मतलब इन दिनों शांति का पर्व न होकर धूम-धड़ाके का पर्व हो गया है. दस-दस हजार की लड़ियों वाले पटाखे एक के बाद एक चलाये जाते हैं. ऐसी आवाजों वाले पटाखे भी होते हैं कि उनकी गूंज से दीवारें तक हिल जाएं, बहरापन महसूस होने लगे. पटाखों का इतना शोर-गुल होता है कि रात में सोना मुश्किल हो जाता है. चाहे जितनी खिड़कियां बंद करो, धुआं घरों में घुसा चला आता है. जिन्हें सांस की तकलीफ है, उनका जान बचाना मुश्किल हो जाता है. अगले दिन पता चलता है कि पटाखों के कारण हवा की गुणवत्ता कितनी खराब हुई और कितना वायु प्रदूषण हुआ. इसीलिए इस बार अदालत ने भी कहा है कि दीपावली मिठाई से मनाएं, पटाखों से नहीं. तो आइए मनाएं दीपावली और सबके साथ खुशियां बांटें.

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