राष्ट्रपति चुनाव: इन नामों की हो रही चर्चा
बुधवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने विपक्षी नेताओं की एक बैठक की, जिसमें कांग्रेस के लोग भी शामिल थे। एक संयुक्त राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के नामों पर चर्चा करने का फैसला किया। आप (दिल्ली और पंजाब), टीआरएस (तेलंगाना), वाईएसआरसीपी (आंध्र प्रदेश), शिअद (पंजाब) और बीजद (ओडिशा) जैसी पार्टियों में से कोई भी आमंत्रण के बावजूद बैठक में शामिल नहीं हुई।
इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वामपंथी विचार-विमर्श का हिस्सा जरूर थे, लेकिन ममता बनर्जी के एकतरफा कार्यों से खुश नहीं हैं। बैठक में दो नामों का सुझाव दिया गया है। पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी और जम्मू-कश्मीर के पूर्व सीएम फारूक अब्दुल्ला के नाम पर बैठक में चर्चा हुई।
दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खेमे के बारे में ज्यादा बात नहीं की जा रही है, जिसका चुनाव जीतना लगभग तय है। 21 जुलाई को नतीजे घोषित किए जाएंगे। वर्तमान सियासी स्थिति को दखते एनडीए बनाम विपक्ष से ज्यादा एनडीए के संभावित नामों की चर्चा अधिक हो रही है।
2002 में एनडीए ने एपीजे अब्दुल कलाम को भारत के राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया। इस कदम ने विपक्षी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (उत्तर प्रदेश) और टीडीपी (आंध्र प्रदेश) जैसे क्षेत्रीय दलों को स्तब्ध कर दिया था। इन्होंने अंततः देश के शीर्ष संवैधानिक पद के लिए भारत के “मिसाइल मैन” का समर्थन किया। उनमें ममता बनर्जी भी शामिल थीं।
अब्दुल कलाम तमिलनाडु से ताल्लुक रखते थे और राज्य की दो मुख्य पार्टियों अन्नाद्रमुक और द्रमुक के पास उनका विरोध करने का कोई कारण नहीं था। एकमात्र अपवाद वामपंथी थे जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मी सहगल को मैदान में उतारा जो एकतरफा मुकाबले में हार गईं।
हाल ही में, 2017 में पिछले चुनाव के दौरान एनडीए ने बिहार के तत्कालीन राज्यपाल और लो-प्रोफाइल दलित नेता राम नाथ कोविंद को चुनकर आश्चर्यचकित कर दिया। वह आसानी से चुनाव जीत गए। हमने देखा है कि कैसे भाजपा ने इस और ऐसे ही अन्य कदमों से दलित समुदाय के मतदाताओं के बड़े हिस्सों का समर्थन प्राप्त कर लिया है।
कौन होगा बीजेपी की तरफ से राष्ट्रपति उम्मीदवार?
एनडीए राष्ट्रपति चुनाव में कोविंद को दोहरा सकता है या हमें एक और आश्चर्यजनक विकल्प के साथ आश्चर्यचकित कर सकता है। इसको लेकर कयासबाजी जारी है। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि कर्नाटक के राज्यपाल और दलित नेता थावर चंद गहलोत, तेलंगाना के राज्यपाल तमिलसाई सुंदरराजन और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के नाम पर भी विचार किया जा सकता है।
नकवी के नाम की भी चर्चा
केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी चुनावी रूप से महत्वपूर्ण समुदायों तक पहुंचने और विपक्ष को बहुत कम विकल्प छोड़ने की भाजपा की आदत पर फिट बैठते हैं। वह एक शिया मुसलमान हैं। उनकी पत्नी हिंदू हैं। शिया मुसलमानों का एक वर्ग भाजपा के प्रति नरम रहा है। तीन तलाक के खिलाफ एनडीए सरकार के कानून के लिए जो भी समर्थन मुस्लिम समुदाय से आया, वह शिया मुसलमानों से आया।
नकवी को राज्यसभा के लिए नामांकित नहीं किया गया है और लोकसभा चुनाव केवल 2024 में होंगे। उनकी उम्मीदवारी को वास्तव में खारिज नहीं किया जा सकता है। केरल के राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान एक और ऐसी पसंद हो सकते हैं।
या फिर कोई तमिल?
ऐसी और भी कई संभावनाएं हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अक्सर तमिल संस्कृति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि तमिल भाषा संस्कृत से भी पुरानी है। मान लीजिए कि दक्षिण से एक तमिलियन को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुना जाता है। उस स्थिति में यह भाजपा को लगभग अछूते क्षेत्र में प्रवेश करने में मदद करेगा और टीआरएस जैसे कुछ विपक्षी दलों के लिए भी उम्मीदवारी का विरोध करना मुश्किल होगा। तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रमुक के लिए भी विपक्षी खेमे में बने रहना मुश्किल होगा। भाजपा वैसे भी पिछले राज्य चुनावों में तमिलनाडु की विपक्षी पार्टी अन्नाद्रमुक की सहयोगी थी।
अगर एनडीए एक आदिवासी उम्मीदवार को चुनता है तो क्या होगा?
भारत के पहले आदिवासी राष्ट्रपति के चुनाव के अभियान के खिलाफ कौन दृढ़ता से लड़ेगा? बीजद और वाईएसआरसीपी (आंध्र प्रदेश) जैसे तथाकथित निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए भी अंततः एनडीए का समर्थन करना आसान होगा जैसा कि वे अक्सर करते हैं। एनडीए के आदिवासी संभावितों में झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके और ओडिशा के जुआल ओराम शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल से से भी उम्मीदवार संभव?
एनडीए की तरफ से अगर ऐसे कदम उठाए जाते हैं तो यह ममता बनर्जी को अपनी पसंद पर पुनर्विचार करने के लिए भी मजबूर कर सकता है। यह अतीत में भी हुआ है। 2012 में उन्होंने चुनाव से केवल 48 घंटे पहले यू-टर्न लिया और यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को वोट दिया। दूसरी सबसे बड़ी घटक के रूप में उन्होंने अन्य नामों का प्रस्ताव करके गठबंधन संकट पैदा कर दिया था। प्रणब मुखर्जी भारत के राष्ट्रपति चुने जाने वाले पहले बंगाली बने। अपने व्यक्तिगत समीकरणों के बावजूद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के लिए एक बंगाली का समर्थन न करना हमेशा मुश्किल था।