International Translation Day: निमाड़ी में अध्यात्म का ज्ञान, तो अंग्रेजी में हिंदी के भावों की पहचान करा रहे अनुवादक

इंटरनेशनल ट्रांसलेशन डे मनाने की शुरुआत इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ट्रांसलेटर्स ने साल 1991 में की थी। इसके बाद साल 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित किया था। दरअसल, इस दिन संत जेरोम की पुण्यतिथि मनाई जाती है, जिन्हें अनुवादकों का संरक्षक कहा जाता है। उन्होंने बाइबल के नए नियम की ग्रीक पांडुलिपियों से लेटिन में अनुवाद किया था।

HIGHLIGHTS

  1. साहित्य जगत में अच्छे ट्रांसलेटर्स की जरूरत।
  2. अनुवाद से रोजगार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।
  3. संत जेरोम की याद में मनाया जाता है यह दिन।

 इंदौर। अनुवाद एक कला भी है और विज्ञान भी। इसमें तर्क भी निहित है और भाव भी। यह स्वांत: सुखाय का साधन भी है और रोजगार का जरिया भी। शहर में अनुवाद और अनुवादकों की एक खूबसूरत दुनिया बसती है।

एक ऐसी दुनिया जो अपनी भाषाई ज्ञान के जरिये औरों का ज्ञान बढ़ा रही है। वहीं, पाठकों को उन भावों से भी रूबरू कराती है जो लेखक के मन के ही नहीं, बल्कि वहां की संस्कृति में भी समाए हुए हैं। साहित्य और ‘कार्पोरेट वर्ल्ड’ दोनों में ही अब अनुवादकों की जरूरत है।

इस बात को शहर के अनुवादक भी स्वीकारते हैं। अच्छी बात यह है कि शहर के अनुवादक केवल अनुवादन की औपचारिकता नहीं निभा रहे, बल्कि उसके जरिये समाज और साहित्य की सेवा भी कर रहे हैं।

कोई मानस के कांड को लोकभाषा के माध्यम से ग्रामीणों तक पहुंचा रहा है, तो कोई वेदों की भाषा को हिंदी में और हिंदी की रचनाओं को संस्कृत के जरिये पाठकों तक पहुंचा रहा है। इनके अनुवाद का दायरा प्रदेश या देश तक सीमित नहीं है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ये कार्य कर रहे हैं।

भाषा-बोली को बचाने का अनुवाद प्रभावी माध्यम

83 साल की पुष्पा दसौंधी की पहचान लेखिका के साथ-साथ अनुवादक के रूप में है। यह पहचान शहरी क्षेत्र के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी है। खास तौर पर मालवा-निमाड़ के। इसकी वजह है रचनाओं का हिंदी, मालवी और निमाड़ी में अनुवाद करना।

पुष्पा बताती हैं कि उनके पति लक्ष्मण सिंह भी इन्हीं भाषाओं में अनुवाद करते थे। हमारा मत यह रहा कि लोकभाषा की खूबसूरती, उसकी विशेषता और उसमें निहित ज्ञान को जन-जन तक अनुवाद के जरिये पहुंचाया जा सकता है।

इसलिए रामचरितमानस के सुंदरकांड, बालकांड और अरण्यकांड को निमाड़ी में अनुवादित किया। मकसद था कि जो ग्रामीण अवधी बोली में उसका अर्थ नहीं समझ सकते, वे अपनी बोली में उसका मर्म जान जाएं।

मेरा मानना है कि भाषा-बोली को बचाने का अनुवाद प्रभावी माध्यम है। खास तौर पर आज जब बोलियों का ज्ञान समाप्त हो रहा है, तब यह अनुवाद की कला और ज्ञान ही है जो उसे सहेज सकता है।

naidunia_image

संस्कृत हमारी संस्कृति की पहचान

बीते 20 वर्ष से संस्कृत भारती की सदस्य के रूप में कार्य करने वाली डॉ. शोभा प्रजापति हिंदी से संस्कृत और संस्कृत से हिंदी में अनुवाद कर रही हैं। डॉ. शोभा का मानना है कि संस्कृत हमारी संस्कृति की पहचान है। यह भाषा हर भारतीय के रक्त में है और इसमें आत्मीय शांति की अनुभूति होती है।

इसे पढ़ने वाला ज्यादा सक्रिय और शांत प्रवृत्ति का होता है। अनुवाद सहज नहीं और उसमें भी हिंदी का संस्कृत में अनुवाद तो और भी जटिल है। इसकी वजह है संस्कृत में व्याकरण, शब्द, धातुरूप आदि का सूक्ष्मता से ध्यान रखना होता है और उससे बड़ी बात कि कृति की मूल भावना भी बनाए रखना होती है।

अनुवाद केवल प्राप्त शब्द ज्ञान के आधार पर ही नहीं होता, बल्कि यह तो शब्द ज्ञान कराता और बढ़ाता भी है। अनुवादक और पाठक दोनों ही यह जान पाते हैं कि एक ही भाव को दो भाषाओं में व्यक्त करने के लिए कौन सा शब्द उपयुक्त है।

राष्ट्रीय एकता-अखंडता को मिलता बढ़ावा

डॉ. अशोक सचदेवा वर्तमान में हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी और हिंदी में अनुवाद करते हैं, लेकिन अब यह सिंधी और उर्दू में भी अनुवाद करने की इच्छा रखते हैं। डॉ. सचदेवा का मानना है कि अनुवाद के माध्यम से पाठक को क्षेत्रीय भाषा-बोली को जानने का अवसर मिलता है।

उत्कृष्ट अनुवाद राष्ट्रीय एकता-अखंडता में बढ़ाता है। जहां तक बात अनुवादक के अनुभव की है, तो अनुवाद से रचनात्मकता बढ़ती है। वह यह जान पाता है कि किस भाषा में भावाभिव्यक्ति कैसी होती है। यह विविध संस्कृति का भी ज्ञान कराती है और तुलनात्मक अध्ययन को भी बढ़ावा मिलता है।

इससे साहित्य का दायरा भी बढ़ रहा है। एक राज्य, एक भाषा का साहित्य अनुवाद के माध्यम से दूसरे राज्य के लोगों को पढ़ने को मिल रहा है। अगर बात अर्थ की करें तो रोजगार के अवसर भी अनुवाद से बढ़ते हैं।

naidunia_image

साहित्य और व्यावसाय में अनुवादक की जरूरत

करीब 40 वर्षों से हिंदी और सिंधी में अनुवाद करती आ रहीं डॉ. रश्मि रमानी का मानना है कि अनुवाद तकिये पर गिलाफ चढ़ाने जैसा सहज कार्य नहीं है। बल्कि अनुवादक तो परकाया से गुजरने जैसी कला है। मूल लेखक की भावनाओं को समझकर और उसे बरकरार रखकर ही उम्दा अनुवाद किया जा सकता है।

भाषा का प्रभाव तब तक उतना अच्छा नहीं हो सकता, जब तक संप्रेषणीय अनुवादित न हो। जहां तक बात इस क्षेत्र में करियर बनाने की है, तो साहित्य अकादमी जिन रचनाओं को पुरस्कृत करता है। उनका अधिक भाषाओं में अनुवाद भी करता है।

मगर, विडंबना यह है कि कई भाषाओं के उम्दा अनुवादक मिलते ही नहीं। साहित्य जगत में तो आला दर्जे के अनुवादकों की आवश्यकता है ही साथ ही व्यावसायिक क्षेत्र में भी जरूरत है।

इसलिए मनाया जाता है यह दिवस

अंतरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस हर साल 30 सितंबर को मनाया जाता है। इसे मनाने की शुरुआत इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ट्रांसलेटर्स ने वर्ष 1991 में की थी। वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतरराष्ट्रीय अनुवाद दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित किया।

वास्तव में यह तारीख इसलिए तय की गई, क्योंकि इस दिन संत जेरोम की पुण्यतिथि मनाई जाती है और संत जेरोम को अनुवादकों का संरक्षक कहा जाता है। वे एक बाइबल अनुवादक थे और उन्होंने बाइबल के नए नियम की ग्रीक पांडुलिपियों से लेटिन में अनुवाद किया था।

इस दिन को मनाने का उद्देश्य अनुवाद के कार्य को सम्मान देना, अनुवाद के आर्थिक पक्ष को मजबूत करना और अनुवाद समुदाय को एकजुट करना है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button