ARTICLE : भारत में फेमिनिज्म अपना नाम चमकाने का जरिया
अपने प्रचलित अर्थों से इतर भारत में फेमिनिज्म
सजीव बिस्वास वरिष्ठ पत्रकार अपने प्रचलित अर्थों से इतर भारत में फेमिनिज्म दरअसल वह विचार है, जो लैंगिक आधार पर बिना भेदभाव के पुरुष और स्त्री दोनों को आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यक्तिगत और भावनात्मक स्तर पर समान अवसर उपलब्ध कराने की बात करता है, जिसका मूल आधार समानता हो।
इसे ऐसे समझें कि यदि पिता ने अपने जीवन में बेटे और बेटी दोनों को एक ही स्कूल में पढ़ाया और आगे पढ़ने-बढ़ने के लिए समान अवसर दिया, तो वे अघोषित रूप से कट्टर फेमिनिस्ट हैं। यदि किसी ने अपनी बहन की पढ़ाई या उसके उज्ज्वल भविष्य और स्वतंत्र जीवन की राह में आने वाली दिक्कतों को दूर किया है, तो वे भी कट्टर फेमिनिस्ट हैं। यदि किसी पद का उत्तराधिकारी चुनने में कोई लिंग भेद किए बिना किसी योग्य व्यक्ति का चयन करता है, तो वह भी कट्टर फेमिनिस्ट है।
इस प्रकार यह भी सच है कि आज के समय में भारत के आधे से अधिक पुरुष और महिलाएं जाने-अनजाने में कट्टर फेमिनिस्ट हैं। पढ़-लिख कर फेमिनिस्ट होने से बेहतर है लोग नैसर्गिक तौर पर फेमिनिस्ट हों। इस बात के पीछे का तर्क यह है कि चीजें या कोई अवधारणा किसी पर थोपी नहीं गई है बल्कि वह पूर्ण रूप से उसके व्यक्तित्व का ही हिस्सा है।
अब आप सोचेंगे कि भारत में फेमिनिज्म के नाम पर जो देखते हैं, वह क्या है? मंचों पर दी गईं परिभाषाएं फेमिनिज्म है? नहीं। कोई स्त्री यदि अपनी हर कविता, हर लेख में पुरुषों को गाली ही दे रही है, तो क्या वह फेमिनिज्म है? उत्तर है, नहीं। वह फेमिनिज्म नहीं है।
उसके लिए अंग्रेजी में एक शब्द होता है, ‘मिजैन्ड्री’ अर्थात पूरी पुरुष जाति के प्रति घृणा का भाव…। इसके ठीक विपरीत अर्थ वाला शब्द भी है, मिसोजिनी अर्थात स्त्री जाति से घृणा का भाव। भारत में फेमिनिज्म के नाम पर जो होता आया है वह दरअसल मिजैन्ड्री है। वह भाव जिसमें हर पुरुष आपको पितृसत्ता का वाहक लगता है, यौन अपराधी लगता है, गालीबाज लगता है, अपनी पत्नी को रोज पीटने वाला वहशी दानव लगता है।
प्रश्न यह है कि भारत में फेमिनिज्म का इस तरह अपहरण क्यों हो गया। फेमिनिज्म मिजैन्ड्री में कैसे बदल गया? इसका स्पष्ट उत्तर है कि भारत में फेमिनिज्म को कोई लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। यहां स्त्री अधिकारों के लिए कोई लंबा संघर्ष नहीं हुआ। सो स्त्रीवाद की बात करने वाले यूं ही घृणा परोस कर अपना अस्तित्व बचाते रहे हैं। पश्चिम का संघर्ष हमसे डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। उनकी लड़ाई, उनके सामने आईं बाधाएं हमसे कई गुना भीषण और गंभीर रहीं।
तनिक भारत से बाहर झांकिए। इंग्लैंड में कंपनियों में महिलाओं को भी पुरुषों के बराबर तनख्वाह और सुविधाएं पाने के लिए 1837 से 1850 तक लड़ाई लड़नी पड़ी, तब जाकर उनको यह अधिकार मिला। पर क्या भारत में किसी फेमिनिस्ट को इसके लिए लड़ना पड़ा? नहीं। अमेरिका में महिलाओं को मत देने का अधिकार दिलाने के लिए फेमिनिस्टों ने 1830 से आंदोलन शुरू किया और उन्हें यह अधिकार पाने में 72 वर्ष लगे। भारत में 1947 में ही एक ही साथ पुरुषों और स्त्रियों दोनों को यह अधिकार मिल गया। यह कितना आसान था!
अमेरिका में स्त्रियों के पास संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। सिविल वॉर समाप्त होने के बाद युद्ध क्षेत्र में काम कर चुकी नर्सों और स्वयंसेवकों ने 1865 के आसपास से इसके लिए आंदोलन प्रारंभ किया और बीस साल बाद ‘मैरिड वीमेन प्रॉपर्टी एक्ट 1884’ द्वारा उन्हें पति से अलग अपने नाम से संपत्ति बनाने का अधिकार मिला। और तो और, खाड़ी देशों में कुछ वर्ष पूर्व तक स्त्रियों को गाड़ी चलाने तक का अधिकार नहीं था। दुनिया के अनेक देशों में अब भी स्त्रियां बिना नकाब के बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रही हैं। उन्हें खुली हवा में सांस लेने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती है।
क्या भारत में फेमिनिस्टों ने इतना संघर्ष किया? नहीं। यहां तो अधिकांश मुद्दे स्वतः हल हो गए। ऐसा भी नहीं कि भारत में फेमिनिस्टों के लिए करने को कुछ है ही नहीं। स्त्रियों के लिए यहां भी बहुत लड़ाइयां लड़ी जानी बाकी हैं। नियोजित तरीके से समाज को मुद्दों से भटका देना, डेटिंग साइट्स से आंकड़े उठा कर उलूल-जुलूल बयान देना, विदेशी मुहावरों को नारे बना देना, पुरुष विरोधी साहित्य रचना, कविताएं लिखना, ऐसा माहौल बना देना कि नई पीढ़ी नारीवाद का सही अर्थ ही न समझ सके, ऐसी बातों के विरुद्ध आवाज उठाने और लंबी लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है।
यूं तो विदेशों में भी मिजैन्ड्री कम नहीं। ऐसे ही लोग अब दृश्य में हैं जिन्होंने फेमिनिज्म का चेहरा, उसका उद्देश्य पूर्ण रूप से बदल कर रख दिया है। स्त्री देह, स्त्री यौनिकता अब मुख्य विषय बन कर रह गए हैं। स्त्रियां अब समानता नहीं सत्ता चाहती हैं और सत्ता का मोह बहुत बुरा होता है साहब! यह आपसे कुछ भी करा सकता है चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक, सही हो या गलत, श्लील हो या अश्लील।
भारत का स्त्रीवादी विमर्श कभी भी स्त्रियों को सहज अधिकार दिलाने पर केंद्रित रहा ही नहीं। बलात्कार जैसे क्रूर अपराध झेलने के बाद भी देश में अधिकांश स्त्रियों को चुप रह जाना पड़ता है, पर यह कभी आंदोलन का कारण नहीं बनता। ऐसे घृणित अपराध के लिए आज तक कोई स्थायी कदम नहीं उठाया गया, कोई कानून नहीं बना जो किसी बलात्कारी को ऐसी सजा दिलवा पाया हो कि उसकी आने वाली सात पुश्तें उसे याद कर कांप उठें। बल्कि भारत के नारीवादी सरकार द्वारा किसी बलात्कारी को सिलाई मशीन दे कर सम्मानित किए जाने का समर्थन करते दिखते हैं। यह भी अद्भुत ही है।
क्या देश के हर बड़े शहर में बस चुके रेड लाइट एरिया में घुट रही लड़कियों के लिए लड़ना आवश्यक नहीं? हर वर्ष प्रेम के नाम पर या हिरोइन बनाने का झांसा देकर हजारों मासूम लड़कियों को फंसा कर अरब देशों में बेचने वाले धंधेबाजों के विरुद्ध बोलने की आवश्यकता नहीं है? रोज ही देश के किसी हिस्से से खबर आती है कि प्रेमी के साथ भाग कर रह रही लड़की को काट कर सूटकेस में भरकर फेंक दिया। क्या इस घिनौने चलन के विरुद्ध बोलना आवश्यक नहीं?
पर इन विषयों पर भारतीय नारीवादी कभी नहीं बोलते। वे आंदोलन करते हैं सड़कों पर सरेआम चूम सकने के लिए। वे हल्ला करते हैं नंगे घूम सकने के लिए। वे उलझते हैं पशुओं की भांति मुक्त रूप से अनेक के साथ संबंध बनाने के अधिकार के लिए। यह घिनौना है। यह मूल मुद्दों से भटकाने का ही प्रयास है। यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों का सबसे अधिक नुकसान स्त्रीवादियों ने ही किया है।