Shri Krishna: एक बार मथुरा आने के बाद कभी वृंदावन नहीं गए भगवान श्री कृष्ण, जानिए क्या था कारण
HIGHLIGHTS
- वह मथुरा जाने के बाद कभी वृंदावन नहीं लौटे।
- सभी लोगों के अनुरोध पर वह मथुरा के सिंहासन पर बैठे।
- भगवान कृष्ण को वृंदावन बहुत प्रिय था।
धर्म डेस्क, इंदौर। Shri Krishna: श्रीकृष्ण की लीलाएं आज भी काफी प्रचलित है। भगवान श्री कृष्ण ने अपना अधिकांश जीवन वृंदावनमें बिताया। साथ ही यह भी किसी से छिपा नहीं है कि कान्हा को वृंदावन और वृंदावन के लोग कितने प्रिय थे। लेकिन इसके बावजूद वह मथुरा जाने के बाद कभी वृंदावन नहीं लौटे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसके पीछे आखिर क्या कारण है।
भगवान श्री कृष्ण ने अपने बचपन का कुछ समय गोकुल में बिताया था। कंस के बढ़ते अत्याचारों को देखकर कृष्ण का परिवार वृंदावन में बस गया। इसके बाद उन्होंने मथुरा जाकर कंस का वध किया और प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। इसके बाद, सभी लोगों के अनुरोध पर वह मथुरा के सिंहासन पर बैठे। इसके बाद वे अपने जीवन में कभी वृंदावन नहीं लौटे।
कभी वृंदावन वापिस नहीं लौटे
कंस को मारने के बाद जरासंध नामक राक्षस भगवान कृष्ण का शत्रु बन गया। वह मथुरा पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। कई ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि जरासंध ने मथुरा पर 18 बार आक्रमण किया, लेकिन 17 बार असफल रहा। वह 18वें हमले में जीत हासिल करने में कामयाब रहा।
मथुरा न छोड़कर वृंदावन लौटने का यह भी एक कारण था। क्योंकि मौका मिलते ही जरासंध मथुरा पर आक्रमण कर देता था। जरासंध के लगातार हमलों के कारण, भगवान कृष्ण ने मथुरा के लोगों के साथ मथुरा छोड़ दिया और पानी के बीच द्वारका शहर की स्थापना की। इसके बाद भगवान कृष्ण को द्वारकाधीश कहा जाने लगा।
गोपियों को भेजा था संदेश
भगवान कृष्ण को वृंदावन बहुत प्रिय था। दूर रहते हुए भी उन्हें वृंदावन और वृंदावन के लोग सदैव याद आते थे। क्योंकि उन्हें वृंदावन में जितना पवित्र प्रेम प्राप्त हुआ था, उतना अन्यत्र प्राप्त करना संभव नहीं था। लेकिन वह जानते थे कि अगर वह वापस लौटे, तो वृंदावन के लोग उन्हें जाने नहीं देंगे। भगवान कृष्ण जानते थे कि वृंदावन जाना उनकी लीला में नहीं था। तब उन्होंने अपने मित्र उद्धव को वृंदावन भेजा और गोपियों तक अपना संदेश पहुंचाने को कहा। लेकिन गोपियां भगवान कृष्ण को भूलने को तैयार नहीं थीं।
एक समय की बात है, एक राजकुमारी का स्वयंवर था। नारद मुनि भी उस राजकुमारी से विवाह करना चाहते थे। उन्होंने भगवान विष्णु से मदद मांगी और कहा, कृपया मेरी चीजों को सुंदर बना दीजिए। भगवान विष्णु ने उन्हें अपना वानर रूप दे दिया और नारद जी इसी रूप में स्वयंवर में पहुंचे।
नारद जी ने दिया था श्राप
नारद जी को लगा कि भगवान विष्णु की सुंदरता देखकर राजकुमारी उन्हें ही माला पहनाएंगी। लेकिन राजकुमारी ने उन्हें छोड़ दिया और वरमाला भगवान विष्णु के गले में डाल दी। इसके साथ ही सभा में नारद जी का उपहास भी हुआ। इस पर क्रोधित होकर नाराज जी ने भगवान विष्णु को नारायण से अलग होने का श्राप दे दिया। उस श्राप के कारण ही द्वापर युग में कृष्ण जी को राधा रानी से वियोग सहना पड़ा।
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