आजमगढ़ में कैसे दिनेश लाल यादव ने स्मृति इरानी मॉडल से हासिल की जीत

नई दिल्ली. निरहुआ सटल रहे…। भोजपुरी सिंगर दिनेश लाल यादव का यह गाना काफी लोकप्रिय हुआ था और इसी तर्ज पर उन्होंने आजमगढ़ में जीत हासिल कर ली है। समाजवादी पार्टी के गढ़ में अखिलेश यादव के भाई धर्मेंद्र यादव को 8,000 वोटों के करीबी अंतर से हराने वाले दिनेश लाल यादव 2019 के चुनाव में भी अखिलेश यादव के मुकाबले उतरे थे। तब उन्हें सपा चीफ के मुकाबले करीब 2 लाख 60 हजार वोटों से हार का सामना करना पड़ा था। यह हार भले ही वोटों के अंतर के मामले में बड़ी थी, लेकिन ‘निरहुआ’ का हौसला उससे कहीं बड़ा था और वह लगातार आजमगढ़ के दौरे करते रहे। वहां लोगों से मुलाकातें करते रहे।

आजमगढ़ में जीते बिना भी सटल रहे निरहुआ

आजमगढ़ की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि निरहुआ का हार के बाद भी संसदीय क्षेत्र के दौरे करना और लगातार संपर्क करना भी उनके पाले में गया है। दिनेश लाल यादव को 2019 के आम चुनाव के दौरान 360255 वोट मिले थे, जबकि समाजवादी पार्टी के कैंडिडेट रहे अखिलेश यादव ने 619594 वोट पाकर बंपर जीत हासिल की थी। तब से अब तक तीन साल का वक्त बीत चुका है और समाजवादी पार्टी कैंडिडेट को मिले वोटों में भी तीन लाख से ज्यादा की कमी आई है। हालांकि तब बसपा और सपा के बीच गठबंधन था।

अपने हिस्से के वोट भी सपा ने खोए, तभी मिली निरहुआ को जीत

इस बार बसपा अलग से चुनाव लड़ी है और उसके उम्मीदवार गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हजार वोट मिले हैं, जबकि सपा के धर्मेंद्र यादव को 3 लाख 3 हजार के करीब वोट हासिल हुए हैं। इस तरह दोनों के वोट मिला भी दें तो यह आंकड़ा 5 लाख 70 हजार बैठता है, जबकि 2019 में अखिलेश यादव 6 लाख 19 हजार वोट मिले थे। साफ है कि सपा के वोटों में 50 हजार वोटों की और कमी आई है और यही दिनेश लाल यादव की जीत की वजह बनी है, जिन्हें 3,12,432 वोट हासिल हुए हैं। साफ है कि मतदान में कमी के बाद भी निरहुआ के वोटों में ज्यादा कमी देखने को नहीं मिली, जबकि सपा को बसपा के कैंडिडेट ने तो नुकसान पहुंचाया ही है। खुद अपने हिस्से के कुछ वोट भी उसने खोए हैं।

कैसे स्मृति ने 1 लाख की हार को 55 हजार से जीत में बदला था

दिनेश लाल यादव की इस जीत की तुलना एक और स्टार कैंडिडेट रहीं स्मृति इरानी से की जा रही है, जिन्होंने अमेठी में कांग्रेस के गढ़ को 2019 में ध्वस्त किया था। हालांकि उन्होंने भी 5 साल का लंबा इंतजार किया था। 2014 में उन्हें राहुल गांधी के मुकाबले एक लाख वोटों से हार झेलनी पड़ी थी, जबकि अगले 5 साल बाद यानी 2019 में उन्होंने 1 लाख वोटों की हार को 55 हजार वोटों से जीत में तब्दील कर दिया। इसके पीछे स्मृति इरानी की मेहनत और अमेठी से लगातार जुड़ाव ही था। वह अकसर किसी भी घटना पर राहुल गांधी से भी पहले अमेठी में पाई जाती थीं। क्षेत्र की सांसद न होते हुए भी उन्होंने लोगों से संपर्क बनाए रखा और लगातार दौरों ने सियासत का दौर ही बदल दिया।

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