सऊदी-ईरान की यारी भारत पर पड़ेगी भारी? जानिए चीन के कराए समझौते का क्या होगा असर
नई दिल्ली. सात साल के लंबे तनाव के बाद ईरान और सऊदी अरब शुक्रवार को राजनयिक संबंध फिर से बहाल करने और दूतावासों को फिर से खोलने पर सहमत हो गए। इस घटनाक्रम पर विशेषज्ञों ने शनिवार को कहा कि इसका पश्चिम एशियाई भू-राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। भारत इस क्षेत्र को अपने विस्तारित पड़ोस के हिस्से के रूप में देखता है। चीन की मदद से मिली इस अहम कूटनीतिक सफलता से दोनों देशों के बीच टकराव की संभावना कम हो गई है। चीन, ईरान और सऊदी अरब ने शुक्रवार को एक त्रिपक्षीय बयान में संबंधों को बहाल किए जाने की घोषणा की। इस डील ने नई दिल्ली में राजनयिक हलकों को चौंका दिया क्योंकि दोनों देशों के बीच बातचीत को काफी हद तक गुप्त रखा गया था। सऊदी विदेश मंत्री फैसल बिन फरहान ने शनिवार को कहा कि यह व्यवस्था दो साल तक चली वार्ता का परिणाम थी।
चीन की भूमिका चौंकाने वाली
तीनों देशों द्वारा जारी संयुक्त बयान के मुताबिक, सऊदी अरब और ईरान 2016 में टूटे राजनयिक संबंधों को फिर से शुरू करेंगे और दो महीने के भीतर अपने दूतावासों और मिशनों को फिर से खोलेंगे। दोनों देश 2001 में हुए सुरक्षा सहयोग समझौते और 1998 में हुए व्यापार, निवेश, प्रौद्योगिकी और संस्कृति में सहयोग समझौते को भी पुनर्जीवित करने पर सहमत हुए हैं।
वैसे तो यह एक बड़ा घटनाक्रम है लेकिन पश्चिम एशिया पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि अभी यह देखना बाकी है कि दोनों देशों के बीच चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं। इसके लिए थोड़ा इंतजार करना चाहिए। समझौते को अंतिम रूप देने में चीन की भूमिका चौंकाने वाली रही। इससे पहले चीन ने इस क्षेत्र की कूटनीति में ऐसी भूमिका कभी नहीं निभाई थी।
सब कुछ काफी गोपनीय रखा गया
सऊदी अरब, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में भारत के दूत के रूप में काम कर चुके तलमीज अहमद भी इस घटनाक्रम से काफी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कहा, “यह सच में चौंकाने वाला था क्योंकि सब कुछ काफी गोपनीय रखा गया। हमने इसके बारे में कुछ नहीं सुना था। सऊदी अरब और ईरान के बीच पिछली वार्ताओं में वरिष्ठ खुफिया अधिकारी शामिल थे लेकिन ये वार्ताएं उच्च स्तर पर थी।”
सऊदी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मोहम्मद अल-ऐबन और सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के ईरान के सचिव एडमिरल अली शामखानी के बीच 6 मार्च से बीजिंग में शुरू हुई पांच दिनों की वार्ता के दौरान इस समझौते पर मुहर लगाई गई थी। दोनों अधिकारी भारत के साथ भी सुरक्षा संबंधों में प्रमुख वार्ताकार रहे हैं।
शी जिनपिंग की सऊदी यात्रा ने बदले समीकरण
सऊदी और ईरानी खुफिया अधिकारियों ने इससे पहले 2021-2022 के दौरान इराक और ओमान में बातचीत की थी। जहां उन वार्ताओं के बारे में दोनों देशों ने सार्वजनिक रूप से बात की थी। लेकिन चीन द्वारा कराई गई डील पर किसी ने कुछ नहीं कहा था। कोई आधिकारिक बयान नहीं आया था। माना जाता है कि पिछले साल दिसंबर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सऊदी अरब की यात्रा और फरवरी में ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी की बीजिंग यात्रा के बाद यह डील फाइनल हुई है।
इस घटनाक्रम को लेकर भारत की ओर से अभी कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। नई दिल्ली स्थित एक लेखक और राजनीतिक विश्लेषक वाइएल अव्वाद ने कहा कि अरब देशों के कई पश्चिम एशियाई देशों और अमेरिका के साथ दशकों से घनिष्ठ संबंध रहे हैं। लेकिन अब इन देशों में चीन के साथ जुड़ने की भावना बढ़ रही है, जोकि उनके पड़ोस में एक उभरती हुई शक्ति है।
“चीन को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता”
हाल के वर्षों में चीन ने सऊदी अरब और ईरान के साथ करीबी संबंध बनाए हैं। इस ओर इशारा करते हुए अवाद ने कहा, “चीन को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, खासकर ऐसे समय में जब यूक्रेन संकट के बाद अमेरिका का ध्यान यूरोप में शिफ्ट हो गया है।” उन्होंने कहा, “इसके अलावा, चीन पश्चिम एशिया से तेल की खरीद को आसान बनाए रखना चाहता है। वैश्विक बाजारों में उथल-पुथल के समय चीन पश्चिम एशिया देशों से अपना लगभग 40% तेल आयात करता है।”
भारत सतर्कता से देख रहा
पश्चिम एशिया में एक नई शक्ति के रूप में चीन के उदय को भारत सतर्कता से देख रहा है। खासतौर से ऐसे समय में जब अमेरिका के साथ चीन का तनाव बढ़ रहा है और ड्रैगन वैश्विक व्यवस्था को एक नया रूप देना चाहता है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कई अन्य देशों में लगभग नौ मिलियन भारतीय प्रवासियों की उपस्थिति के चलते भारत पश्चिम एशियाई देशों को अपना विस्तारित पड़ोसी मानता है। तेल की सप्लाई के लिए भी भारत पश्चिम एशियाई देशों का रुख करता रहा है। पश्चिम एशिया में बीजिंग की कूटनीतिक चाल ऐसे समय में आई है जब वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के पास लद्दाख सेक्टर में भारत-चीन भिड़े हुए हैं। दोनों देशों के बीच संबंध दशकों में सबसे निचले स्तर पर हैं।
ईरान और सऊदी अरब के बीच मध्यस्थता में भारत द्वारा भूमिका निभाए जाने की बार-बार वकालत करने वाले तलमीज अहमद कहते हैं, “यह हमेशा हमारे हितों का हिस्सा रहा है, खासकर भारत द्वारा पिछले एक दशक में कई देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने के बाद। अब एक चिंता है कि भारत पीछे हट सकता है।”
भारत के इन देशों से गहरे संबंध
अहमद ने कहा कि भारत पश्चिम एशियाई प्रतिद्वंद्वियों के बीच मध्यस्थता करने के लिए बेहतर स्थिति में है। उन्होंने कहा, “पश्चिम एशिया में रह रहे भारतीय प्रवासी सालाना लगभग 35 बिलियन डॉलर से 40 बिलियन डॉलर भारत भेजते हैं, जबकि इस क्षेत्र में मुश्किल से 500,000 चीनी नागरिक होंगे। इस क्षेत्र के साथ हमारे संपर्क हजारों साल पुराने हैं और गहरे सांस्कृतिक संबंध हैं।”
सऊदी अरब-ईरान के संबंध ऐसे समय में फिर से बने हैं जब सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान के बीच यमन में युद्ध को लेकर कथित मतभेद सामने आए हैं। सऊदी नेता ने जनवरी में संयुक्त अरब अमीरात द्वारा आयोजित पश्चिम एशियाई नेताओं के शिखर सम्मेलन से दूरी बनाए रखी। पिछले दिसंबर में, यूएई नेतृत्व सऊदी अरब में चीन-अरब शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ था।
यमन के चलते हुई यारी
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान के साथ सऊदी अरब ने यारी यमन को ध्यान में रखते हुए की है। यमन के गृह युद्ध में सऊदी अरब और ईरान ने अलग-अलग पक्षों का समर्थन किया है। ईरान द्वारा समर्थित हूती विद्रोहियों को सऊदी तेल कारखानों पर मिसाइल और ड्रोन हमलों के लिए दोषी ठहराया गया है। ईरान के साथ मेल-मिलाप यमन में तनाव को कम करने में मदद कर सकता है और यहां तक कि सऊदी अरब को हूतियों के साथ युद्ध से बाहर निकलने में मदद कर सकता है।
संयुक्त अरब अमीरात उन देशों में शामिल था, जिन्होंने इजराइल के साथ अब्राहम समझौते को अपनाया और भारत-इजरायल-यूएई-यूएस (I2U2) जैसे नए समूहों में शामिल हो गए, जबकि सऊदी अरब ने इजरायल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने पर जोर दिया। विशेषज्ञों ने कहा कि यह देखने के लिए लंबे समय तक इंतजार करना होगा कि क्या चीन द्वारा फाइनल की गई डील से सुन्नी-बहुसंख्यक सऊदी अरब और शिया-बहुसंख्यक ईरान के बीच संबंधों में सुधार होता है या नहीं।
अव्वाद ने कहा, “हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि क्या यह सिर्फ एक अस्थायी युद्धविराम है या इसमें कुछ और है।” अहमद ने कहा कि बहुत कुछ अमेरिका की प्रतिक्रिया पर भी निर्भर करेगा, जो इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सैन्य उपस्थिति के बावजूद पश्चिम एशिया में रणनीतिक रूप से पिछड़ा हुआ प्रतीत होता है। साथ ही इजरायल की प्रतिक्रिया पर भी नजर रखनी होगी। उन्होंने कहा कि सऊदी अरब जैसे कुछ देशों ने अब्राहम समझौते द्वारा लाए गए परिवर्तनों के बावजूद फिलिस्तीन के मुद्दे को नहीं छोड़ा है, और इन सभी फैक्टर्स का पश्चिम एशिया में काफी असर पड़ेगा।