धर्मांतरण की आग में सुलगते बस्तर की पड़ताल:कुछ गांव की आबादी 90 फीसदी ईसाई तो कई में धर्म बदलने की होड़
मैं इस समय नारायणपुर के उस इलाके में हूं जहां 2 जनवरी को ईसाई धर्म मानने वाले लोगों के घरों पर हमला हुआ। इस इलाके के सबसे बड़े रोमन कैथोलिक चर्च पर हमला हुआ। ये हमला बस्तर के सैकड़ों गांवों में चल रहे उस वर्ग विभाजन के बिगड़ते माहौल का संकेत है जहां ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासी और मूल धर्म के आदिवासियों के बीच दुश्मनी गहरा रही है।
भुमियाबेड़ा, तेरदुल, घुमियाबेड़ा, चिपरेल, कोहड़ा,ओरछा, गुदाड़ी और ऐसे ही कई नाम। ये नाम हैं उन गांवों के जहां की आदिवासी आबादी ने पिछले 20-25 साल में तेजी से कनवर्जन, मतलब अपना आदिवासी धर्म छोड़कर ईसाई धर्म मानना शुरू कर दिया है। जानकार कहते हैं कि नारायणपुर जिला मुख्यालय से जो गांव जितने दूर, घने जंगल में हैं वहां की आबादी उतनी ही तेजी से क्रिश्चियन धर्म अपना रही है।
किसी किसी गांव में इसका प्रतिशत 90 फीसदी तक है, हालांकि ये गांव छोटे और 100-200 आबादी या 20-30 घर वाले भी हैं। आदिवासियों के ऐसा करने के कारण कई हैं, लेकिन जो सबसे ज्यादा स्वीकारे जाने वाला कारण है वह है चर्च की प्रार्थना से तबीयत और जीवन का बेहतर हो जाना। इसकी हकीकत कुछ भी हो, लेकिन हर कनवर्टेड क्रिश्चियन यह कहता नजर आता है। गोंड जाति से ईसाई बने और फिर इस धर्म के प्रचारक बन गए पियाराम उसेंडी कहते हैं…
“2007 में मैं बहुत परेशान था। मेरे घर में सब बीमार रहते थे। इसी दौरान मुझे किसी ने चर्च में जाने के लिए कहा। मैं गया तो फादर और उनके लोगों ने मेरे बीमार माता-पिता के लिए प्रार्थना की। मैं भी प्रार्थना करने लगा फिर ईसाई धर्म मानने लगा। अब मैं पास्टर हूं। दो दिन पहले भीड़ ने मेरा घर तोड़ दिया, प्रार्थना भवन तहस-नहस कर दिया, प्रभु उन्हें क्षमा करें।” वे इस समय अपने घर के आंगन में टूटे पलंग-बर्तनों, बाहर फेंक दिए गए बिस्तर, कपड़ों के बीच खड़े हैं।
चर्च युवकों को मोटरसाइकिल देता है, तनख्वाह देता है
बस्तर का नारायणपुर जिला अभी तक अबूझमाड़ के जंगलों, नक्सलियों के गढ़ के रूप में चर्चा में रहता था,लेकिन इस बार इसकी चर्चा धर्मांतरण को लेकर है। इस जिले की मूल आदिवासी जातियों जिसमें गोंड़, उरांव, मुरिया, मुड़िया, अबूझमाड़िया हैं के लोग तेजी से ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर आदिवासी क्यों ईसाई बन रहे हैं। इसके दो कारण है। ईसाई धर्म अपना चुके लोग कहते हैं कि उनकी, उनके माता-पिता, परिजनों की बीमारी में चर्च की प्रार्थना बहुत असरकारक रही। इससे ठीक उलट मूलधर्म के आदिवासियों का कहना है कि प्रार्थना, दिखावा है। चर्च की ओर से ईसाई बन चुके लोगों को मुफ्त शिक्षा, अनाज, इलाज, पैसे दिए जाते हैं। कई युवकों को चर्च ने मोटरसाइकिल दिलाई, कई को हर महीने तनख्वाह भी दी जाती है।
गांव-गांव में बन गए प्रार्थना घर
पूरे इलाके में या कहें पूरे बस्तर में ही ये प्रार्थना से ठीक होने की बात इतनी जबरदस्त तरीके से फैली है कि नारायणपुर की शांतिनगर सहित कुछ बस्तियों और दूरदराज के गांव में भी ईसाई समुदाय का एक प्रार्थना घर ( इसका मतलब गांव के किसी घर का ही एक कमरा होता है) बन गया है। एड़का, भाटपाल, रेमावन, चिंगरान, बेनूर, गरांजी जैसे कई गांव हैं जिनमें पिछले कुछ सालों में प्रार्थना घर बने हैं। इन प्रार्थना घरों में हर रविवार अनिवार्य रूप से आराधना होती है। वाद्ययंत्रों के साथ भजन-कीर्तन गाए जाते हैं। इसमें कभी-कभी बड़े गांवों, जिला मुख्यालय से पास्टर भी आते हैं प्रवचन देते हैं। इसमें शामिल होने के लिए पूरे गांव जो कि 20-30 घर ही होते हैं उन्हें बुलाया जाता है। बीमार, बूढ़ों, गरीब, परेशान लोगों का नाम लेकर प्रार्थना की जाती है। ऐसे में किसी का भला हुआ तो उसकी प्रार्थना में आस्था बढ़ जाती है फिर ईसाई धर्म में भी। यहीं से लोगों को मदद करने की बात भी सामने आती है।