2037314982578 रुपये खर्च, फिर कैसे 1 डॉलर में बेच दी अमेरिका की ये तिजोरी

डोनाल्ड ट्रंप जबसे दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, तभी से उनकी नजर इस तिजोरी पर गड़ी है. ट्रंप ने 2025 के अपने पहले कांग्रेस संबोधन में इस नहर को लेकर एक बड़ा ऐलान किया. ट्रंप ने कहा, ‘(पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति) रेगन के समय से अलग, अब हमारे पास इजराइल जैसी शक्तिशाली सेना बनाने की तकनीक है और हम अपने नागरिकों की रक्षा करेंगे. हम अपने व्यावसायिक और सैन्य जहाज निर्माण को बढ़ावा देंगे. व्हाइट हाउस में जहाज निर्माण के लिए एक नया कार्यालय स्थापित किया जाएगा, जो तेजी से काम करेगा. और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के लिए हम पनामा नहर को वापस लेंगे. हमने इसकी शुरुआत कर दी है. एक बड़ी अमेरिकी कंपनी ने पहले ही दोनों बंदरगाहों को खरीदने की घोषणा कर दी है.’

ट्रंप ने आगे कहा, ‘इस नहर को अमेरिकी पैसों से बनाया गया, 38,000 अमेरिकी मजदूरों ने इसे बनाने के दौरान अपनी जान गंवाई. यह हमारे प्रशासन का सबसे महंगा प्रोजेक्ट था, जिसे जिमी कार्टर ने मात्र 1 डॉलर में पनामा को सौंप दिया. यह चीन को नहीं दिया गया था, लेकिन अब हम इसे वापस ले रहे हैं.’

33 साल में बनकर हुआ तैयार
अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को जोड़ने वाली पनामा नहर अमेरिका की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग उपलब्धियों में से एक मानी जाती है. इस नहर पर अब दक्षिण अमेरिकी देश पनामा का अधिकार है. इस नहर को बनाने का काम 1881 में शुरू हुआ था, जो वर्ष 1914 में पूरी तरह बनकर तैयार हुआ था. इस नहर को बनाने में तब कुल 287 मिलियन डॉलर (आज के हिसाब से 2037314982578 रुपये) खर्च हुए थे. इस प्रोजेक्ट के दौरान 38,000 से अधिक अमेरिकी मजदूरों ने मलेरिया और अन्य बीमारियों से अपनी जान गंवाई थी. लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि इतनी महंगी और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण नहर को 1 डॉलर में पनामा को सौंप दिया गया.

पनामा नहर का निर्माण और अमेरिका की मेहनत
1904 में अमेरिका ने पनामा नहर के निर्माण की जिम्मेदारी संभाली. यह परियोजना इतनी कठिन थी कि फ्रांस पहले ही इसे अधूरा छोड़ चुका था. अमेरिका ने अत्याधुनिक तकनीक, कुशल इंजीनियरों और हजारों मेहनती मजदूरों की मदद से 1914 में इस नहर का निर्माण पूरा किया. इस परियोजना पर खर्च हुए अरबों डॉलर और हजारों मजदूरों की शहादत ने अमेरिका को एक नई रणनीतिक ताकत दी.

कैसे अमेरिका ने नहर को खो दिया?
1977 में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने पनामा के साथ एक संधि की, जिसे Torijos-Carter Treaties कहा गया. इस संधि के तहत अमेरिका ने 31 दिसंबर 1999 को नहर को पनामा को सौंपने की सहमति दी.

दरअसल कार्टर प्रशासन का मानना था कि पनामा नहर के नियंत्रण को बनाए रखना अमेरिका के लिए फायदेमंद नहीं था. पनामा सरकार ने अमेरिका पर दबाव बनाया था कि उसे अपने क्षेत्र में संप्रभुता दी जाए. अमेरिका को यह लगा कि अगर वह नहर को पनामा को नहीं सौंपता, तो राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है. लेकिन यह फैसला विवादास्पद था. कई अमेरिकी नेताओं का मानना था कि यह नहर अमेरिका की “संपत्ति” थी और इसे इतनी आसानी से छोड़ देना एक ऐतिहासिक गलती थी.

1999 में, जब नहर को पनामा को आधिकारिक रूप से सौंपा गया, तो अमेरिका को इसके बदले में मात्र 1 डॉलर का प्रतीकात्मक भुगतान मिला. यह फैसला उस समय बेहद विवादास्पद था, क्योंकि यह अमेरिका की सामरिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा झटका था. कई विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका ने बिना किसी खास रणनीतिक लाभ के यह सौदा किया. नहर के स्वामित्व को पनामा को सौंपने के बाद चीन समेत कई देशों की कंपनियां इसमें रुचि लेने लगीं और धीरे-धीरे इस महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर अमेरिका का प्रभाव कम हो गया.

क्या अमेरिका पनामा नहर पर दोबारा कब्जा कर सकता है?
ट्रंप प्रशासन के इस आक्रामक रुख के बाद सवाल उठता है कि क्या अमेरिका वाकई इस नहर पर दोबारा नियंत्रण कर सकता है? मौजूदा समय में पनामा नहर पर पनामा सरकार का नियंत्रण है, लेकिन इसमें चीन समर्थित कंपनियों की गहरी पैठ बन चुकी है.

अगर अमेरिका इस नहर पर फिर से कब्जा करना चाहता है, तो उसे या तो पनामा सरकार से नई डील करनी होगी या फिर सैन्य दबाव बनाना पड़ेगा. ट्रंप प्रशासन की नीति को देखते हुए यह संभावना जताई जा रही है कि अमेरिका जल्द ही इस दिशा में कदम उठा सकता है.

पनामा नहर केवल एक जलमार्ग नहीं, बल्कि अमेरिका की ऐतिहासिक और रणनीतिक धरोहर है. इसे 1 डॉलर में बेच देना न केवल आर्थिक रूप से नुकसानदेह था, बल्कि यह अमेरिका की वैश्विक शक्ति को भी कमजोर करने वाला निर्णय साबित हुआ. ट्रंप का ऐलान बताता है कि अब अमेरिका इस गलती को सुधारने के लिए आक्रामक नीति अपनाने को तैयार है. अमेरिका के इस दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही वैश्विक राजनीति में बड़ा भूचाल आने की आशंका है.

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