एक देश एक चुनाव के हैं कई फायदे, लेकिन राह आसान नहीं, जानिए क्या है सरकार की तैयारी
एक देश एक चुनाव की सिफारिश करने वाली पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। सरकार ने इस मसले पर विपक्ष से एक राय बनाने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और किरण रिजिजू को जिम्मेदारी सौंपी है। अनुमान है सरकार शीतकालीन सत्र में इस प्रस्ताव को पेश कर सकती है।
नई दिल्ली, । एक देश, एक चुनाव की सिफारिश करने वाली पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। ये रिपोर्ट लगभग 18,626 पन्नों की थी। कमेटी का गठन 2 सितंबर, 2023 को हुआ। कमेटी ने हितधारकों, विशेषज्ञों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया और लगभग 191 दिनों में ये रिपोर्ट तैयार की।
सरकार ने इस मसले पर विपक्ष से एक राय बनाने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और किरण रिजिजू को जिम्मेदारी सौंपी है। अनुमान है, सरकार शीतकालीन सत्र में इस प्रस्ताव को बिल के रूप में पेश कर सकती है। इस बिल को लागू करने से देश को कई तरफ के फायदे तो मिलेंगे, लेकिन इसे लागू करने के रास्ते में कई सारी चुनौतियां भी हैं। जागरण प्राइम ने विशेषज्ञों से एक देश, एक चुनाव के फायदे, जरूरत, प्रक्रिया और चुनौतियों को लेकर चर्चा की। आइए इस मसले को विशेषज्ञों से समझते हैं…
“एक देश, एक चुनाव” रिपोर्ट बनाने वाली समिति में कौन-कौन से लोग थे?
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी में अन्य सदस्य केंद्रीय गृह मंत्री और सहकारिता मंत्री अमित शाह, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आज़ाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन.के. सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी थे। केंद्रीय कानून और न्याय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल विशेष आमंत्रित सदस्य थे। डॉ. नितेन चंद्र हाई लेवल कमेटी के सचिव थे।
कितने लोगों के साथ चर्चा कर तैयार हुई रिपोर्ट?
समिति ने विभिन्न हितधारकों से विचार-विमर्श किया। 47 राजनीतिक दलों ने इस मामले पर हाई लेवल कमेटी के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया। पूरे देश से लगभग 21,558 प्रतिक्रियाएं समिति को मिलीं। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व मुख्य न्यायाधीश और हाई कोर्ट के 12 पूर्व मुख्य न्यायाधीश, चार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, आठ राज्य चुनाव आयुक्त और भारतीय विधि आयोग के अध्यक्ष जैसे कानून के विशेषज्ञों को समिति द्वारा व्यक्तिगत रूप से बातचीत के लिए आमंत्रित किया गया था। भारत के चुनाव आयोग के विचार भी मांगे गए।
कितने लोग एक साथ चुनाव के पक्ष में रहे और कितने विरोध में?
रिपोर्ट के मुताबिक, 47 राजनीतिक दलों में से 32 ने एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया, जबकि 15 दलों ने इसका विरोध किया। 21,558 प्रतिक्रियाओं में से 80 फीसदी उत्तरदाताओं ने एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया। रिपोर्ट के मुताबिक, विरोध करने वाले प्रमुख दलों में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) शामिल हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी और नेशनल पीपुल्स पार्टी ने इसका समर्थन किया।
कोविंद समिति की प्रमुख सिफारिशें क्या हैं?
देश में होने वाले सभी चुनावों को दो चरणों में लागू कर दिया जाए। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभाव के चुनाव एक साथ कराए जाएं। वहीं 100 दिन बाद दूसरे चरण में निकाय और पंचायत चुनाव कराए जाएं।
सभी तरह के चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट बनें।
यदि किसी राज्य में सरकार भंग होती है तो सरकार की बची अवधि के लिए ही चुनाव कराए जाएं। उदाहरण के लिए अगर कोई सरकार दो साल के बाद गिर जाती है तो अगले तीन साल के लिए ही अगली सरकार का चुनाव होगा।
लोकसभा और राज्यों में विधानसभा का कार्यकाल एक ही दिन खत्म हो।
अगर किसी विधानसभा का चुनाव समय पर नहीं हो पाता है तो भी उसका कार्यकाल लोकसभा के साथ ही समाप्त हो।
क्या देश में एक साथ चुनाव संभव है?
जी हां, पर्याप्त तैयारियों के साथ ये संभव है। देश में आजादी के बाद 1951 से 1967 तक चुनाव एक साथ ही होते थे। उसके बाद में 1999 में लॉ कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में ये सिफ़ारिश की थी देश में चुनाव एक साथ होने चाहिए। हालांकि, इसे लागू करने के लिए राजनीतिक स्तर पर सहमति बनानी होगी।
“एक देश, एक चुनाव” को लागू करने के लिए क्या कवायद करनी होगी?
सुप्रीम कोर्ट के वकील संतोष तिवारी कहते हैं कि समिति की रिपोर्ट को कैबिनेट की मंजूरी के बाद विधि मंत्रालय को बिल का मसौदा बनाना होगा। इस बिल को संसद के दोनों सदनों से पारित कराना होगा। संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में बदलाव करने होंगे। संसद में दो-तिहाई बहुमत से संविधान में संशोधन हो भी जाये तो उसके बाद राज्यों की विधानसभा की मंजूरी चाहिए होगी।
लोकसभा और राज्य सभा के चुनाव एक साथ कराना कितना जरूरी है?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं, लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ हों, यह संविधान सम्मत होने के साथ पूरे देश के लिए कल्याणकारी है। इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह भी है कि इससे बार-बार आचार संहिता लगने की वजह से होने वाली देरी से मुक्ति मिलेगी और विकास कार्यों की रफ्तार बढ़ेगी। एक साथ चुनाव होने से जुड़े आर्थिक लाभों का ठोस अध्ययन उपलब्ध नहीं है। लेकिन कुछ समर्थक जीडीपी में 1.5 फीसदी बढ़ोतरी का दावा करते हैं।
क्या एक देश, एक चुनाव से संविधान और लोकतंत्र कमजोर कमजोर हाेगा?
विराग गुप्ता के मुताबिक, 1952 से 1967 के बीच हुए सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चार चुनावों से संविधान और लोकतंत्र कमजोर नहीं हुआ था। कुछ लोग इसे संघीय ढांचे के खिलाफ मान रहे हैं। जबकि हकीकत में इससे अनेक क्षेत्रीय दलों की विधानसभा के साथ लोकसभा में ताकत बढ़ सकती है। इससे अमेरिका की तर्ज पर केन्द्रीय स्तर पर द्विदलीय व्यवस्था का विकास होगा, जिससे चुनावों में सतही आरोपों की बजाय सार्थक बहस के नए दौर की शुरुआत हो सकती है।
पूरे देश में एक साथ चुनाव करने के लिए किस तरह के संसाधानों की जरूरत होगी?
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाय कुरैशी के मुताबिक, देश में फिलहाल 20 लाख ईवीएम मशीन हैं जिनका अलग-अलग चुनावों में इस्तेमाल होता है। यदि एक साथ चुनाव कराना हुआ तो 40 लाख अतिरिक्त ईवीएम की जरूरत होगी। इनके निर्माण में दो से तीन साल का वक्त लगेगा। इसके अलावा, वीवीपैट मशीन का भी निर्माण करना होगा। एक साथ चुनाव के लिए चुनाव आयोग के अधिकारियों और कर्मचारियों की संख्या में भी बड़े इजाफे की जरूरत होगी।
एक देश, एक चुनाव को लागू करने में किस तरह की बाधा आ सकती है?
विराग गुप्ता के मुताबिक, स्थानीय निकायों का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार राज्यों के अधीन है। स्थानीय निकाय के चुनावों को लोकसभा के 100 दिन बाद कराने के कानूनों को लागू करने के लिए सभी राज्यों की सहमति जरूरी होगी। कई राज्यों में नागरिकता से जुड़े मामलों पर चल रहे विवाद से साफ है कि पूरे देश के लिए एक वोटर लिस्ट की पहल आसान नहीं होगी। लोकसभा की सीटों के परिसीमन में उत्तर और दक्षिण भारत के क्षेत्रवाद का विवाद हावी हो सकता है। ऐसी अनेक चुनौतियों के बीच संविधान और कानूनों में संशोधन करके एक साथ चुनावों के संकल्प को सफल बनाना, सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।