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Korba News: यूरेशियन ऊदबिलाव को जंगल से ज्यादा आबादी के पास रहना पसंद

संरक्षण की आवश्यकता पर फोकस करते हुए वन विभाग प्रयासरत है। यह जीव तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है और अगर अभी इनके संरक्षण की पहल न की गई तो वे विप्लुप्त हो जाएंगे।

HIGHLIGHTS

  1. छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा के शोध से सामने आई कई नई बातें।
  2. कोरबा में स्मूद कोटेड, दूसरा स्माल क्लाड और यूरेशियन आटर प्रजाति का बसेरानोट।
  3. ऊदबिलाव के व्यवहार से जुड़ी कुछ खास बातें
कोरबा। यूरेशियन आटर यानी ऊदबिलाव एक ऐसा एपेक्स प्रिडेटर माना जाता है, जो मछुआरों का पीछा करते हैं। जाल काटकर उसमें फंसी सबसे बड़ी मछली उड़ा ले जाते हैं। बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि ऊदबिलाव की यह प्रजाति कोरबा के जंगलों में भी निवास करती है। इनके संरक्षण और लोगों की जागरूकता के लिए वन विभाग के मार्गदर्शन और छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई द्वारा शोध-अध्ययन एवं खोज कार्य किया जा रहा है।

अब तक की रिसर्च में नई बात ये सामने आई है कि जंगलों से ज्यादा यूरेशियन ऊदबिलाव को आबादी के पास रहना ज्यादा पसंद है। विस्तृत अध्ययन और डाटा एकत्र हो जाने के बाद संरक्षण की व्यापक कार्ययोजना तैयार कर कार्य शुरू लिए जाने की बात कही जा रही है।पूरी दुनिया में 13 प्रकार के ऊदबिलाव मिलते हैं। इनमें भारत में तीन प्रजाति पाई गई है, जिनके कोरबा में भी होने की उम्मीद जताई गई है।

छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई का जागरूकता कार्यक्रम

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कोरबा वनमंडल के उप वनमंडलाधिकारी आशीष खेलवार के मार्गदर्शन में कोरबा जिले में ऊदबिलाव के संरक्षण की दिशा में प्रयास किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई के विशेषज्ञों की टीम आवश्यक आंकड़े जुटाने अध्ययन कर रही है। राज्य संयुक्त सचिव निधि सिंह ने बताया कि ऊदबिलाव एक तरह से एपेक्स प्रिडेटर होता है। पूरी दुनिया में 13 प्रकार के ऊदबिलाव मिलते हैं।

इनमें भारत में तीन प्रजाति पाई गई है और महत्वपूर्ण बात है कि अब तक मिले इंडायरेक्ट इंडिकेशन और साक्ष्य पर गौर करें तो कोरबा के जंगलों में भी इन तीनों की प्रजातियों का बसेरा माना जा रहा है। अब इनके फोटोग्राफिक साक्ष्य की तलाश की जा रही है, जिससे शत प्रतिशत पुष्टि की जा सकेगी। इनमें स्मूद कोटेड, दूसरा स्माल क्लाड और तीसरा यूरेशियन आटर शामिल है।

यूरेशियन आटर की प्रत्यक्ष मौजूदगी कोरबा में चिन्हांकित और सूचीबद्ध भी गई है। कोरबा वनमंडल के एसडीओ आशीष खेलवार ने बताया कि हमारे जंगल में भी ऊदबिलाव का बसेरा है, यह कोरबा जिले के लिए काफी महत्वपूर्ण विषय है। खास बात यह है कि अब तक के रिसर्च में एक रोचक बिंदु यह भी सामने आया है कि ऊदबिलाव जंगल के अलावा आबादी वाले क्षेत्र में ज्यादा संख्या में पाए जाते हैं।

अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया गया था। इसलिए इनके संरक्षण की आवश्यकता पर फोकस करते हुए वन विभाग प्रयासरत है। यह जीव तेजी से दुर्लभ होता जा रहा है और अगर अभी इनके संरक्षण की पहल न की गई तो वे विप्लुप्त हो जाएंगे। आवास दृश्यावलोकन पर जुटाई जा रही जानकारी एसडीओ खेलवार ने कहा कि लोग इस दुर्लभ वन्य जीव के बारे में जाने, कोरबा में कौन कौन सी प्रजाति पाई जाती है, इनका रहन-सहन कैसा होता है, क्या खाता है और कैसे स्थलों में अपनी मांद बनाता है।

भारत और हमारी प्रकृति के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, यह सभी न केवल हम सब को, खासकर युवा पीढ़ी और बच्चों के ज्ञानवर्धन की दृष्टि से भी काफी अहम है। इन सब बातों को लेकर फिलहाल हम रिसर्च वर्क कर रहे हैं और पहले चरण में ऊदबिलाव के आवास दृश्यावलोकन पर जानकारी जुटाई जा रही है।

वन विज्ञान में ऐसा माना जाता है कि किसी भी वन्य जीव के आवास को सुरक्षित कर लें तो उसका संरक्षण भी खुद ब खुद हो सकता है। उसके विस्तृत अध्ययन के बाद जब सारे जरूरी आंकड़े एकत्र होंगे, ऊदबिलाव संरक्षण की दिशा में एक व्यापक कार्ययोजना तैयार की जाएगी।

चलाया जा रहा जन जागरूकता कार्यक्रम

छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई का जागरूकता कार्यक्रमविश्व ऊदबिलाव दिवस पर बुधवार 29 मई को छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई के सदस्यों द्वारा एनटीपीसी कोरबा टाउनशिप में कृषि मंदिर सर्वेश्वर शिव मंदिर और कोरबा पथरीपारा क्षेत्र में जन जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया। निधि सिंह ने बताया कि यूरेशियन आटर काफी विशेष प्रजाति होती है।

छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा कोरबा इकाई की टीम द्वारा ही सबसे पहले कोरबा में इस प्रजाति के एक बच्चे को रेस्क्यू किया गया था। इस रेस्क्यू मिशन की रिपोर्ट भी पीसीसीएफ के समक्ष प्रस्तुत की जा चुकी है। तभी पता चला था कि कोरबा में भी यूरेशियन आटर की इस विशेष प्रजाति की मौजूदगी है। एनटीपीसी टाउनशिप में कृषि मंदिर सर्वेश्वर शिव मंदिर और कोरबा पथरीपारा क्षेत्र में जन जागरूकता कार्यक्रम किया गया।-

व्यवहार से जुड़ी कुछ खास बातें

    • यूरेशियन आटर अधिकतर अकेले घूमते हैं और यह रात्रिचर जीव होता है। बहुत मुश्किल से दिन में दिखते हैं।
    • जमीन के अलावा ये कई बार पानी के नीचे भी मांद बनाकर रहते हैं।
    • मेटिंग के समय ही नर और मादा साथ होते हैं।
    • यह जून-जुलाई में बच्चे देता है, जिनमें एक बार में एक या दो बच्चे ही होते हैं।
    • बच्चों के जन्म के बाद उनकी देखभाल के लिए मादा अलग हो जाती है।
    • मां अपने बच्चों को तीन माह तक पानी में नहीं उतरती है।
    • तीन माह की उम्र होने पर मां उसे अपनी छाती में बिठाकर धीरे धीरे तैरना सिखाती है।
    • मछली, घोंघे और कई बार चिड़िया का भी शिकार कर लेते हैं।
  • मछली के लिए कई बार ये मछुआरे के पीछे भी जाते हैं और जाल काटकर सबसे बड़ी मछली चुरा ले जाते हैं।

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