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Chhattisgarh Election 2023: खेती के मौसम में महंगा हुआ चुनाव प्रचार, रैली व सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए शहरों से जुटाने पड़ रहे मजदूर

HIGHLIGHTS

  1. तीन घंटे का ले रहे पांच-छह सौ रुपये, इसके बाद प्रति घंटे सौ रुपये
  2. रैलियों में ज्यादातर वही चेहरे आते हैं नजर, राजनीतिक दल भी मजबूर
महासमुंद। खेती-किसानी के सीजन में होने वाले चुनाव ने प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों का बजट गड़बड़ा दिया है। दरअसल, गांवों में इन दिनों धान की फसल की कटाई चल रही है। इसके चलते ग्रामीण और यहां के मजदूर व्यस्त हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों को रैली में भीड़ बढ़ाने के लिए शहरों से ही मजदूरों की व्यवस्था करनी पड़ रही है।
 
गांवों से जहां तीन सौ रुपये में मजदूर मिल जाया करते थे, शहरी मजदूर पांच-छह सौ रुपये से कम में नहीं मिल रहे हैं। खाना-पीना, नाश्ता, लाने-पहुंचाने के लिए वाहन आदि की व्यवस्था अतिरिक्त करनी पड़ रही है। मजे की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर मजदूर कई पार्टियों की रैलियों में नजर आते हैं। राजनीतिक दलों के सामने यह सब जानते हुए भी इन्हें बुलाने की मजबूरी है, क्योंकि रैलियों में शक्ति प्रदर्शन के लिए अधिक से अधिक भीड़ जुटाना वे जरूरी समझते हैं।
 
पांच साल में एक बार आने वाले चुनावी त्योहार का लाभ इस बार ग्रामीण मजदूर कम उठा पा रहे हैं। आम दिनों में जब खेती-किसानी का काम कम रहता है, ऐसे समय में जब चुनाव होते हैं तो लगभग एक माह तक वे चुनाव प्रचार, रैली, सभा आदि में शामिल होकर अच्छी खासी आमदनी कर लेते हैं, लेकिन इस बार समय उनके अनुकूल नहीं है।
 
इसका फायदा शहरी मजदूर उठाने में लगे हुए हैं। वे इस बार एक रैली अथवा सभा में शामिल होने की मजदूरी पांच सौ रुपये को बढ़ाकर छह सौ रुपये ले रहे हैं, वह भी मात्र तीन घंटे के लिए। इसके बाद हर घंटे का सौ रुपया अतिरिक्त ले रहे हैं। गांवों से मजदूर मिल जाने से राजनीतिक दलों का कम खर्च में काम चल जाता था, लेकिन इस बार स्थिति अलग है।

रैलियों का समय प्रबंधन

राजनीतिक दल भी रैलियों के समय प्रबंधन पर भी पूरा ध्यान दे रहे हैं। विशेषकर कांग्रेस और भाजपा अपनी रैलियों और सभाओं में कम से कम तीन से चार घंटे का अंतराल रख रही हैं, क्योंकि उन्हें भी मालूम है कि इसमें भीड़ बढ़ाने के लिए पहुंचने वाले ज्यादातर मजदूर वही हैं। स्थिति यह है कि जो मजदूर कुछ देर पहले दूसरे दल का झंडा लिए नजर आता है, कुछ देर बाद उसके ही हाथ में दूसरे दल का झंडा दिखने लगता है। इतना ही नहीं, प्रत्याशियों के समर्थक भी वैतनिक हैं, जो अपना काम-धंधा छोड़कर साथ रहते हैं। उन्हें रोजी तो नहीं, लेकिन एकमुश्त रकम थमा दी जाती है।

नेता भी हैं ब्लैक लिस्टेड

खास बात यह है कि रैली व सभाओं में जाने वाले मजदूर कुछ नेताओं को भी ब्लैक लिस्टेड किए हुए हैं और उनके आयोजनों में जाने के लिए एडवांस मांग रहे हैं। दरअसल, जिन नेताओं ने पिछले चुनावों में बुलाने के बाद भी वादे के अनुसार भुगतान नहीं किया है, उनके साथ जाने में मजदूर परहेज कर रहे हैं। हाथ में रकम आने के बाद ही उनके आयोजनों में शामिल हो रहे हैं।

मजदूरों ने चुन लिया है मुखिया

चुनाव के समय श्रमिक नेताओं की बल्ले-बल्ले है। वे राजनीतिक दलों से सीधे सौदा कर रहे हैं। इसमें मजदूरों की संख्या और उनकी मजदूरी दोनों पर बात हो रही है। कुछ मजदूरों ने बताया कि उनका मुखिया उन्हें सौ रुपये कम का ही भुगतान करता है, लेकिन वह रोजाना दो-तीन रैलियों व सभाओं की व्यवस्था कर देता है, इसलिए उन्हें कोई एतराज नहीं है।

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