मां बम्लेश्वरी मंदिर डोंगरगढ़ – छत्तीसगढ़ पर्यटन स्थल

छत्तीसगढ़ राज्य के राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी माता का भव्य मंदिर विराजमान है। डोंगरगढ़ में 16 सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी माता का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। मंदिर की अधिष्ठात्री देवी मां बगलामुखी जी हैंजिन्हें मां दुर्गा का स्वरूप भी माना जाता है। हजार से ज्यादा सीढिय़ां चढ़कर हर दिन मां के दर्शन पाने के लिए पुरे देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आया करते हैं। जो ऊपर नहीं चढ़ पाते उनके लिए मां का एक मंदिर पहाड़ी के नीचे भी स्थित है जिसे छोटी बम्लेश्वरी मां के रूप में जाना जाता है। अब मां के मंदिर में जाने के लिए रोप वे भी लगाया जा चुका है।
छत्तीसगढ़ राज्य में मां बम्लेश्वरी माता के रूप में ये पूजी जाती हैं। मंदिर की ख्याति देश-विदेश तक प्रसिद्ध है। ऊपर बड़ी बम्लेश्वरी एवं नीचे स्थित छोटी बम्लेश्वरी माता विराजित हैं। इन्हें एक – दूसरे की बहन भी कहा जाता है। ऊपर तक पहुंचने के लिये करीब 1100 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। यात्रियों की सुविधा के लिए रोपवे का निर्माण कर दिया गया है। रोपवे सोमवार से लेकर शनिवार तक सुबह आठ बजे से लेकर दोपहर दो तथा फिर अपरान्ह के तीन से शाम पौने सात बजे तक चालू रहता है। रविवार को सुबह सात बजे से रात के सात बजे तक चालू रहता है। नवरात्रि के मौके पर चौबीसों घंटे रोपवे की सुविधा उपलब्ध रहती है।
मंदिर के नीचे छीरपानी नामक एक जलाशय भी है जहां यात्रियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था भी उपलब्ध है। डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी माता के दो मंदिरों के अलावा भी बजरंगबली मंदिरनाग वासुकी मंदिरशीतला मंदिर तथा दादी मां मंदिर भी स्थित हैं। मंदिर का दरवाजा सुबह चार बजे से दोपहर के एक बजे तक तथा फिर दोपहर दो बजे से लेकर के रात के 10 बजे तक खुला रहता है। रविवार को सुबह चार बजे से रात दस बजे तक मंदिर लगातार खुला ही रहता है। नवरात्रि के दिनो मे अधिक भीड़ होने के वजह से पर मंदिर का पट चौबीसों घंटे खुला रहता है।
श्रद्धालुओं की मान्यता –
यहां सच्चे मन से मांगी की हर एक मुराद मां जरूर पूरा कर देती हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दिनो मे यहां लाखों की संख्या में श्रद्धालु माता के श्रीचरणों में आशीर्वाद लेनेके लिए दूर दूर से आते हैं। अष्ठमी पर माता के दर्शन करने घंटों लाइन पर खड़ा रहना भी पड़ता है। इसके बावजूद भी यहां हर साल भीड़ बढ़ती ही जाती है। बड़ी संख्या में यहां श्रद्धालु पैदल भी माता के दरबार में पहुंचते हैं।
2200 वर्ष पुराना है डोंगरगढ के बम्लेश्वरी मैया का इतिहास : यह भी कहा जाता है कि लगभग बाइस सौ साल पहले माधवानल तथा कामकंदला की प्रेम कहानी से महकने वाली इस कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन हुआ करता था। यहां संतान की कामना के लिए उन्होंने भगवती दुर्गा एवं शिवजी की उपासना किए। इसके फलस्वरूप ही उन्हें एक साल के अंदर पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई। वीरसेन के द्वारा पुत्र का नाम मदनसेन रखा गया। मां भगवती तथा भगवान शिव के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए राजा के द्वारा मां बम्लेश्वरी मंदिर का निमार्ण करवाया गया, वहीं बाद में मदनसेन के पुत्र कामसेन के द्वारा राजगद्दी संभाली गई।
माना यह भी जाता है कि कामसेन उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के समकालीन ही थे। कला, नृत्य तथा संगीत के लिए विख्यात् कामाख्या नगरी में कामकंदला नाम की राज नर्तकी भी थी। वह नृत्यकला में निपुण एवं अप्रतिम सुन्दरी भी थी। उसकी सुंदरता एवं नृत्य कुशलता के दूर-दूर तक चर्चे थे। एक बार राज दरबार में कामकंदला की नृत्य हो रही थी। उसी समय माधवानल नाम का एक संगीतज्ञ राजदरबार के समीप से गुजरा तथा संगीत में खो गया। संगीत प्रेमी होने के कारण माधवानल द्वारा दरबार में प्रवेश करना चाहा गया, लेकिन दरबारी ने उन्हें अंदर जाने की अनुमति नहीं दिया। माधवानल बाहर ही बैठकर तबले एवं घुंघरू का आनंद लेने लगा।
संगीतज्ञ द्वारा पकडी गई गलती : माधवानल को यह लगा कि तबला वादक का बायां अंगूठा नकली है एवं नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरू के एक घुंघरू में कंकड़ अच्छी नहीं है। इससे ताल में अशुद्धि सी आ रही है। वह बोल पड़ा- ‘मैं व्यर्थ में यहां पर चला आया। यहां के राज दरबार में ऐसा एक भी संगीतज्ञ मौजुद नहीं है, जिसे ताल की सही पहचान हो एवं अशुद्धियों को पकड़ सके।’ द्वारपाल द्वारा उस अजनबी से अपने राजा तथा राज दरबार के बारे में ऐसा सुना तो उसे तत्काल रोका गया। वह तुरंत राज दरबार में गया एवं राजा को सारी बात सुनाई। तभी राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल उन्हें सादर राज दरबार के अंदर ले गया। उनके कथन की पुष्टि होने पर उन्हें संगीत का मौका भी दिया गया। उनकी संगत में कामकंदला भी नृत्य करने लगी।
ऐसा लग रहा था मानो राग – रागनियों का अद्भुत संगम हो रहा हो। तभी अचानक एक भौंरा कामकंदला के वक्ष (छाती) पर आकर बैठ गया। थोड़े समय के लिए कामकंदला का ध्यान हटा जरूर, मगर नृत्य चातुर्य से उसने भौंरे को भी उड़ा दिया। इस क्रिया को कोई भी नहीं देख पाया, मगर माधवानल उनकी इस क्रताब को भी देख रहा था। इस घटना के द्वारा माधवानल को कामकंदला का दीवाना बना दिया। दोनों में प्रेम भी हो गया जो राजकुमार मदनादित्य को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।
राजा विक्रमादित्य द्वारा कराया गया मेल : एक बार माधवानल की संगत में कामकंदला भी नृत्य कर रही थी। बहुत अच्छी प्रस्तुति के बाद राजा प्रसन्न होकर माधवानल को पुरस्कार भी दिया, लेकिन राजा के द्वारा दिया गया अपना पुरस्कार उन्होंने राज नर्तकी को दे दिया। जिसको देख राजा कुपित हो गए। राजा के द्वारा उन्हें तत्काल राज्य की सीमा से बाहर जाने का आदेश दे दिया गया, लेकिन माधवनल राज्य से बाहर न जाकर डोंगरगढ की पहाडियों की गुफा मे ही छिप गया था। कामलन्दला अपनी सहेली माधवी के साथ छिप छिप कर माधवनल से मिलने आया करती थी। दूसरी तरफ राजा कामसेन का पुत्र मदनादित्य पिता के स्वभाव के विपरीत नास्तिक एवं अय्याश प्रकृति का था। वह कामकन्दला को मन ही मन चाहता भी था तथा उसे पाना भी चाहता था। मदनादित्य के भय से कामकन्दला उससे प्रेम का नाटक करने लगी थी। 
एक दिन माधवनल रात्रि मे कामकन्दला से मिलने उसके घर को पहुचा था कि उसी वक्त मदनादित्य अपने सिपाहियो के साथ कामकन्दला से मिलने के लिए चला गया। यह देख माधवनल पीछे के रास्ते से गुफा की ओर निकल पडा। घर के अंदर आवाजे आने की बात पूछ्ने पर कामकन्दला के द्वारा दीवारों से अकेले मे बात करने की बात कही गई। इससे मदनादित्य संतुष्ट बिलकुल नही हुआ तथा अपने सिपाहियों से घर पर नजर रखने को कहकर महल की ओर चला गया। एक रात्रि पहाडियो से वीणा की आवाज सुन तथा कामकन्दला को पहाडी की तरफ जाते देख मदनादित्य रास्ते मे बैठकर उसकी प्रतिक्षा करने लगा लेकिन कामकन्दला दूसरे रास्ते से अपने घर लौट गई।
दनादित्य ने शक होने पर कामकन्दला को उसके घर पर नजरबंद कर दिया। इस पर कामकन्दला और माधवनल माधवी के माध्यम से पत्र व्यवहार करने लगे, किन्तु मदनादित्य ने माधवी को एक रोज पत्र ले जाते पकड लिया। डर व धन के प्रलोभन से माधवी ने सारा सच उगल दिया। मदनादित्य ने कामकन्दला को राजद्रोह के आरोप मे बंदी बनाया उधर माधवनल को पकडने सिपाहियों को भेजा। सिपाहियो को आते देख माधवनल पहाडी से निकल भागा और उज्जैन जा पहुचां। उस समय उज्जैन मे राजा विक्रमादित्य का शासन था जो बहुत ही प्रतापी और दयावान राजा थे।
मां बम्लेश्वरी मंदिर के बारे में कुछ खास तथ्य –
मां बम्लेश्वरी देवी शक्तिपीठ का इतिहास लगभग 2200 वर्ष पुराना है। डोंगरगढ़ से प्राप्त भग्रावेशों से प्राचीन कामावती नगरी होने के प्रमाण मिले हैं। पूर्व में डोंगरगढ़ ही वैभवशाली कामाख्या नगरी कहलाती थी।
मां बम्लेश्वरी मंदिर के इतिहास को लेकर कोई स्पष्ट तथ्य तो मौजूद नहीं हैलेकिन मंदिर के इतिहास को लेकर जो पुस्तकें और दस्तावेज सामने आए हैंउसके मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास मध्यप्रदेश के उज्जैन से जुड़ा हुआ है।
मां बम्लेश्वरी को मध्यप्रदेश के उज्जैयनी के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुल देवी भी कहा जाता है।
इतिहासकारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया हैलेकिन अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां यहां दो बार मिल चुकी हैंतथा उससे हटकर कुछ मूर्तियों के गहनेउनके वस्त्रआभूषणमोटे होठों तथा मस्तक के लम्बे बालों की सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्ति कला पर गोंड कला का प्रमाण परिलक्षित हुआ है।
यह अनुमान लगाया जाता है कि 16 वीं तक डूंगराख्या नगर गोंड राजाओं के अधिपत्‍य में रहा। यह अनुमान भी अप्रासंगिक नहीं है कि गोंड राजा पर्याप्त समर्थवान थेजिससे राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित थी। आज भी पहाड़ी में किले के बने हुए अवशेष बाकी हैं। इसी वजह से इस स्थान का नाम डोंगरगढ़ (गोंगरपहाड़गढ़किला) रखा गया और मां बम्लेश्वरी का मंदिर चोटी पर स्थापित किया गया।
एतिहासिक और धार्मिक स्थली डोंगरगढ़ में कुल 11 सौ सीढिय़ां चढऩे के बाद मां के दर्शन होते हैं।
बम्लेश्वरी माता मंदिर डोंगरगढ़  कैसे पहुंचें –
 
राजनादगांव से 35 व राजधानी रायपुर से यह 105 किलोमीटर दूर है। हावड़ा-मुंबई रेलमार्ग से भी यह जुड़ा हुआ है। यहां रेल और सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
सड़क मार्ग से : डोंगरगढ़ राजनांदगांव जिला मुख्यालय से 57 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। वहाँ जाने के लिए सबसे अच्छा साधन है ट्रेनबसऔर फिर खुद की ट्रांसपोर्ट व्यवस्था है।
ट्रेन से : अगर आप ट्रेन से यात्रा करना चाहते है तो निकटतम रेल्वे स्टेशन है डोंगरगढ़।
फ्लाइट से : निकटतम हवाई अड्डा है रायपुर। जो घरेलु उड़ानों से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है।
माधवनल की करूण कथा सुन उन्होने माधवनल की सहायता करने की सोच अपनी सेना कामाख्या नगरी पर आक्रमण कर दिया। कई दिनो के घनघोर युध्द के बाद विक्रमादित्य विजयी हुए एवं मदनादित्य माधवनल के हाथो मारा गया। घनघोर युध्द से वैभवशाली कामाख्या नगरी पूर्णतः ध्वस्त हो गई। चारो ओर शेष डोंगर ही बचे रहे तथा इस प्रकार डुंगराज्य नगर पृष्ठभूमि तैयार हुई। युध्द के पश्चात विक्रमादित्य द्वारा कामकन्दला एवं माधवनल की प्रेम परिक्षा लेने के लिए जब यह मिथ्या सूचना फैलाई गई कि युध्द मे माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ तो कामकन्दला ने ताल मे कूदकर प्राणोत्सर्ग कर दिया। वह तालाब आज भी कामकन्दला के नाम से विख्यात है।
उधर कामकन्दला के आत्मोत्सर्ग से माधवनल ने भी अपने प्राण त्याग दिये। अपना प्रयोजन सिध्द होते ना देख राजा विक्रमादित्य ने मां बम्लेश्वरी देवी (बगुलामुखी) की आराधना की और अतंतः प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गये। तब देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त को आत्मघात से रोका। तत्पश्चात विक्रमादित्य ने माधवनल और कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि मां बगुलामुखी अपने जागृत रूप मे पहाडी मे प्रतिष्ठित हों। तबसे मां बगुलामुखी अपभ्रंश बम्लेश्वरी देवी साक्षात रूप मे डोंगरगढ मे प्रतिष्ठित है।

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